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December 24, 2025 Author: Divya Gautom
हिंदू कैलेंडर की समय गणना चंद्र और सूर्य की चाल दोनों पर आधारित होती है। सामान्यत: एक वर्ष में बारह मास होते हैं, लेकिन कुछ विशेष वर्षों में मासों की संख्या तेरह (13) हो जाती है। यह स्थिति ‘अधिक मास’ के रूप में जानी जाती है। यह कोई सामान्य घटना नहीं है, न ही इसे अशुभ माना जाता है, बल्कि यह ऋतु, पर्व और समय के संतुलन को बनाए रखने की एक बहुत ही विवेकपूर्ण और आवश्यक प्रक्रिया है।
जब चंद्र और सौर दिन एक‑दूसरे से मेल नहीं खाते, तो समय के चक्रों में भेद पैदा होता है। इसी फर्क को संतुलित करने के लिए पंचांग में एक अतिरिक्त मास जोड़ा जाता है। इसे ही अधिक मास कहते हैं, और इसे हिंदू धर्म में पुरुषोत्तम मास के नाम से भी सम्मान मिलता है।
हिंदू पंचांग में समय की गणना दो अलग‑अलग खगोलीय आधारों पर टिकी होती है। एक है चंद्रमा की गति और दूसरा है सूर्य की गति। चंद्रमा का चक्र लगभग उन्तीस से तीस दिनों का होता है, इसलिए चंद्र वर्ष में लगभग बारह मास होते हैं, जिनकी कुल अवधि लगभग 354 दिन होती है। दूसरी ओर, सूर्य की गति पर आधारित सौर वर्ष लगभग 365 दिन का होता है, जो ऋतु चक्र और मौसमों से जुड़ा होता है (चंद्र मास और सौर वर्ष के बीच का यह अंतर हर साल लगभग 11 दिन का होता है)। यह क्रमिक फर्क हर साल थोड़ा‑थोड़ा जुड़ता जाता है और जब यह लगभग एक पूरे मास के बराबर हो जाता है, तब पंचांग में एक अतिरिक्त मास जोड़ा जाता है। यही मास अधिक मास कहलाता है।
चंद्र और सौर वर्ष के बीच होने वाला फर्क ही अधिक मास का सबसे बड़ा कारण है। चंद्र वर्ष सौर वर्ष से छोटा होने के कारण यह फर्क हर साल धीरे‑धीरे जुड़ता रहता है। जब यह अंतर लगभग तीस दिनों के करीब पहुंच जाता है, तब पंचांग के वैज्ञानिक नियमों के अनुसार अतिरिक्त मास का समावेश किया जाता है। इस व्यवस्था से पंचांग में ऋतु‑परिवर्तन, त्यौहार और कृषि चक्र सही समय पर बने रहते हैं। आम तौर पर यह स्थिति ढाई से तीन वर्षों के अंतराल पर बनती है। इससे त्योहार, व्रत, व्रत की अवधि और ऋतु‑समय को व्यवस्थित रखने में मदद मिलती है।
अधिक मास का सीधा संबंध सूर्य के राशि परिवर्तन से होता है। सामान्य रूप से हर चंद्र मास के दौरान सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, जिसे संक्रांति कहा जाता है। लेकिन जब किसी पूरे चंद्र मास के दौरान सूर्य अपनी राशि में नहीं बदलता और एक ही राशि में बना रहता है, तब उस मास को अधिक मास माना जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि उस मास में कोई संक्रांति नहीं होती। उसी वजह से पंचांग में साल के मासों में एक अतिरिक्त मास जोड़ा जाता है और उस वर्ष बारह के बजाय तेरह मास हो जाते हैं।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, अधिक मास को अत्यंत शुभ और पवित्र माना जाता है। इसे पुरुषोत्तम मास कहा जाता है क्योंकि भगवान विष्णु को समर्पित होने के कारण इसे विशेष पुण्यदायी माना जाता है। इस मास में की गयी पूजा, भक्ति, जप, दान और सेवा‑कार्य के फल पारंपरिक मान्यता के अनुसार कई गुना बढ़ जाते हैं। इस दौरान भक्त लोग भगवान विष्णु के मंत्रों का जाप करते हैं, धार्मिक ग्रंथों का पाठ करते हैं, और पवित्र स्नान तथा दान‑दान करते हैं ताकि आत्मिक शांति और भक्ति‑भावना में वृद्धि हो सके। धार्मिक परंपरा में कहा जाता है कि यदि इस मास में मिठाई वितरण, सेवा‑कार्य, वृक्षारोपण और गरीबों की सहायता की जाये, तो उसके पुण्य का फल कई वर्षों तक मिलता है।
क्या अधिक मास में शुभ कार्य होते हैं?
हालांकि, अधिक मास को पुण्यदायी माना जाता है, परंतु पारंपरिक धार्मिक मान्यता के अनुसार विवाह, गृह प्रवेश, नामकरण संस्कार और अन्य मांगलिक कार्य उस दौरान नहीं किए जाते। यह अवधि अधिकतर धार्मिक साधना, आत्म‑चिंतन और आध्यात्मिक उन्नति के लिए समर्पित होती है। इस मास के बाद ही अच्छे शुभ मुहूर्त और अन्य पारिवारिक कार्यक्रम तय किये जाते हैं। जैसे‑जैसे अधिक मास समाप्त होता है, धार्मिक कैलेंडर पुनः सामान्य मासों और शुभ समयों पर लौट आता है।